Journalists is the Fourth Pillar of Democracy – जब पत्रकार ही हो जाएं असुरक्षित
लखनऊ/नई दिल्ली
रिपोर्ट: वक्त का मुद्दा न्यूज़ डेस्क
भारत में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। संसद, न्यायपालिका और कार्यपालिका की तरह पत्रकारिता को भी लोकतंत्र के संतुलन का एक मजबूत स्तंभ माना गया है। लेकिन जिस स्तंभ को राष्ट्र की आत्मा कहा जाता है, वही आज सबसे अधिक उपेक्षित, अपमानित और असुरक्षित नजर आ रहा है। पत्रकारों के साथ अधिकारियों, पुलिसकर्मियों और कभी-कभी आम जन से भी जो व्यवहार देखने को मिलता है, वह लोकतंत्र की गरिमा पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
देशभर में रोजाना ऐसे दर्जनों मामले सामने आते हैं जहाँ पत्रकारों को कर्तव्य पालन के दौरान अपमानित किया जाता है, उनके साथ दुर्व्यवहार होता है, झूठे मुकदमे दर्ज कर दिए जाते हैं या फिर उन्हें डराया-धमकाया जाता है।
हाल ही में कई राज्यों में ऐसे घटनाक्रम हुए जहाँ थाने के भीतर ही महिला पत्रकारों से अभद्रता की गई, उन्हें रिपोर्टिंग से रोका गया या कैमरा छीन लिया गया। क्या यही वह पत्रकारिता है जिसे संविधान ने ‘जनता की आवाज’ का दर्जा दिया है?
कोर्ट और प्रशासन की चुप्पी
यह विडंबना ही है कि पत्रकारों की सुरक्षा और गरिमा के मुद्दे पर कोर्ट और प्रशासन प्रायः मौन रहते हैं। किसी पत्रकार पर हमला हो जाए तो एक-दो दिन सुर्खियाँ बनती हैं, फिर मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। प्रशासनिक स्तर पर पत्रकारों के हित में कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई है। ना तो उन्हें सुरक्षा दी जाती है, ना ही कोई कानूनी संरक्षण कि वे स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग कर सकें।
पुलिस और अफसरशाही की मनमानी
जमीन पर काम कर रहे रिपोर्टरों को अक्सर पुलिस द्वारा ‘रुकने’, ‘वीडियो बंद करने’ या ‘थाने आने’ जैसी धमकियाँ दी जाती हैं। कई बार जब पत्रकार किसी भ्रष्टाचार या अपराध की परत खोलते हैं, तो उन्हें ही आरोपी बना दिया जाता है। अफसरशाही का रवैया इतना कठोर होता है कि कई ईमानदार पत्रकारों को या तो झूठे मामलों में फँसाकर चुप करा दिया जाता है, या फिर उन्हें नौकरी से निकालने का दबाव बनाया जाता है।
पत्रकार संगठन और उनके मौन रवैये पर सवाल
इस पूरे परिदृश्य में पत्रकार संगठनों की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। बहुत सारे संगठन महज औपचारिकता तक सीमित रह गए हैं। जब कोई पत्रकार मुश्किल में आता है, तो समर्थन की जगह चुप्पी या राजनीतिक संतुलन देखने को मिलता है। यही कारण है कि पत्रकार आज खुद को अकेला और असहाय महसूस कर रहा है।
क्या हो समाधान?
- पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाए जाने चाहिए जिसमें किसी भी हमले या अभद्रता को गैर-जमानती अपराध माना जाए।
- कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेकर ऐसे मामलों में कार्रवाई करनी चाहिए।
- हर जिले में पत्रकार सुरक्षा हेल्पलाइन होनी चाहिए ताकि तुरंत मदद मिल सके।
- प्रशासन और पुलिस को पत्रकारों के साथ सम्मानजनक व्यवहार का आचार संहिता जारी करना चाहिए।
निष्कर्ष
अगर लोकतंत्र को जीवंत और मजबूत बनाए रखना है, तो पत्रकारों को सम्मान और सुरक्षा देना अनिवार्य है। जो लोग सच्चाई को सामने लाते हैं, उन्हें दबाना, अपमानित करना या डराना एक लोकतांत्रिक अपराध है। समय आ गया है कि देश न्याय और प्रशासन के स्तर पर यह स्पष्ट करे कि क्या पत्रकार सच में चौथे स्तंभ हैं, या फिर सिर्फ एक मौन दर्शक जिनकी आवाज किसी को नहीं सुनाई देती?
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